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|संग्रह=शाम सुहानी / रंजना वर्मा
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<poem>
सन्नाटों में सहमी-सहमी बुरजें हैं मीनारें हैं
चारो ओर हमारे अब भी कितनी ही दीवारें हैं

हर माझी की चाह यही है पार पहुँच जाये नैया
छलकी बहती जाती नदिया कितनी दूर किनारे हैं

अब सन्नाटे मचल रहे हैं तड़पाती है तनहाई
सहमा सहमा जल सागर का गुमसुम सारे धारे हैं

चुप चुप-सी हो खामोशी खाली दीवारें बोल उठें
दिल के सारे भाव छुपाये दो नैना रतनारे हैं

सूने सूने गुलशन सारे पतझड़ जैसे ठहर गया
बहकी बहकी पवन बसन्ती रूठी हुई बहारें हैं

</poem>