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|संग्रह=अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
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<poem>
मेरे मित्र! शायद हमेशा की तरह
मैं तुमसे मिल नहीं सकता हूँ,
पर मेरे सहयात्री ! हताश नहीं मैं
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।

डर और अपेक्षाओं की लालसा से
बहुत दूर, पर पास तुम्हे पाताहूँ।
भोली आँखों में पलते सपने से
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।

झरते अश्रुकणों की मतवाली चाह से
जीवन-बेल की लता को सींचता हूँ
नए विहान की पहली रश्मि से
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।

पृथ्वी-स्वर्ग की सीमाओं से
मुक्त तुम्हे मैं कर जाता हूँ
पर, यह मेरा विश्वास अटल है
तुम जो कहते हो, मैं सुनता हूँ।
</poem>
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