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|संग्रह=अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
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<poem>
जिस दिन से मैं, मैं न रहूँगा
सिर्फ तुम ही, तुम रह जाओगे
और तब मैं तुममें ही रहूँगा
सोचो फिर कैसे भूल पाओगे?

तुम्हारे प्रेम गीतों से सजी सुमधुर तान
रक्ताभ होठों से झरती मादक मुस्कान
अधखिली कलियों के मदन रस से सिंचित
सुवासित उन्मादित देह में,तुम मुझे पाओगे

सुरभित मंद पवन की, मनभाती अनबोली चितवन
सर्द रात्रि की एकाकी पीड़ा, अनछुई सी सिहरन
मधुमास की असह्य वेदना हो जाये जब विरहन
आते जाते अपनी स्वाँसों में तुम मुझको अपनाओगे

जीवन के अनजाने पथ पर थक जाओ जब चलत- चलते
जन्मों के साथी जब चले जा रहे यूँ ही मिलते और बिछड़ते
कलश मंगल भीग सेजाये जब नयन नीर से झरते -झरते
संसार सिन्धु में मेरी नैया, प्रलय में अपने पास पाओगे

असरहीन जब हो जाये यौवन की अंगड़ाई
आशाओं के दीप बुझे, हो अपनी प्रीत पराई
छोड़ कभी जब साथ दे, अपनी ही परछाई
मैं तेरा चिर मित्र फिर तुम किसको और बुलाओगे

पुनः प्रयाण की तैयारी है, आना है हर बार यहाँ
हमें नहीं मालूम मरे और हम जन्मे कितनी बार कहाँ
अभी तो याद नहीं है, जाने की है डगर जहाँ
ये अनंत की अंतिम यात्रा, अब भेद नहीं कर पाओगे
</poem>
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