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{{KKRachna
|रचनाकार=परंतप मिश्र
|अनुवादक=
|संग्रह=अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
जीवन के रथ पर सतत प्रवाहित
कालचक्र के पहिये में घूमता
अवस्थाओं के चरणों में विभक्त
कौन है पहला और कौन आखिरी
कहना आसन न होगा
मानव भी जन्म मरण के चक्रों को
जीता है कई चरणों में
स्वरूप तो परिवर्तित होता है पर
कुछ है जो परे है
जो कभी नष्ट नहीं होता
अविनाशी, अविभक्त, काल से मुक्त
यात्रा किया करता है
जल की ही तरह
धरती के धैर्य और आकाश के ताप से
वाष्पित हो
उड़ चलता है हवाओं के साथ
आवारा बादल बन स्वत्रंत विचरण करते
किसी पर्वत की चोटी पर मुग्ध
सर्वस्व अर्पित कर
यात्रा की थकान से मुक्ति के लिए
घनीभूत हो कुछ समय का विश्राम
पुनः पिघल कर दौड़ पड़ती है
उस विशाल जलराशि में
स्वयम् की सत्ता को तिरोहित करने
पुनः प्रयाण की प्रतीक्षा में
जीवन के कालचक्र पर आरूढ़
</poem>
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|संग्रह=अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
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जीवन के रथ पर सतत प्रवाहित
कालचक्र के पहिये में घूमता
अवस्थाओं के चरणों में विभक्त
कौन है पहला और कौन आखिरी
कहना आसन न होगा
मानव भी जन्म मरण के चक्रों को
जीता है कई चरणों में
स्वरूप तो परिवर्तित होता है पर
कुछ है जो परे है
जो कभी नष्ट नहीं होता
अविनाशी, अविभक्त, काल से मुक्त
यात्रा किया करता है
जल की ही तरह
धरती के धैर्य और आकाश के ताप से
वाष्पित हो
उड़ चलता है हवाओं के साथ
आवारा बादल बन स्वत्रंत विचरण करते
किसी पर्वत की चोटी पर मुग्ध
सर्वस्व अर्पित कर
यात्रा की थकान से मुक्ति के लिए
घनीभूत हो कुछ समय का विश्राम
पुनः पिघल कर दौड़ पड़ती है
उस विशाल जलराशि में
स्वयम् की सत्ता को तिरोहित करने
पुनः प्रयाण की प्रतीक्षा में
जीवन के कालचक्र पर आरूढ़
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