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जलेंगे घी के दिए / मनोहर अभय

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शरद की रात
साफ सुथरी
जलेंगे घी के दिए.

घुट रहा दम तिमिर का
साँस सौरभ को मिली
आलोक करवट ले रहा
कुमुदनी सोने चली
बिसरे हुओं के द्वार पर
स्वस्ति वाचन हुए.

आर्त स्वर निःशब्द हैं
वेदना के पाँव उखड़े
बंद खुशिओं के खुले
जकड़े हुए सब पिंजड़े
बधाए
गंधल हवाओं ने दिए.

चाहती अखरोट खाना
बाग़ की गिलहरियाँ
चल पड़ीं पैदल
छोड़ वैसाखी
—बहंगियाँ
ताप-आतप के
दिन बहुत जी लिए.

अब मिलेंगे बस्तियों में
हँसते-खेलते से बगीचे
बिछेंगे चौपाल पर
गुदगुदे कोमल गलीचे
बदलाव के रंग-ढंग नए
ये देखिए.
</poem>
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