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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
कभी पर्वत कभी वादी, कभी झरने कभी सहारा1
बची कौन सी जगह, रहा न तेरे वर्चस्व का पहरा
धरा-धरोहर धन-दौलत, सर्वस्व तुम्हारे पास रहा
हमें जातिय दुर्बलता का, ज़ख्म मिला बहुत गहरा

इतिहास के पन्नों से भारत की, तस्वीर मिटा डाली
स्वर्णिम बौद्धों के शासन की, बुनियाद हिला डाली
जहाँ गौतम की नगरी में, अहिंसा के फूल खिलते थे
उस गुलशन को जला के आदि सभ्यता मिटा डाली

हिमालय से पूछो हमार, सभ्यता क्या थी?
जिसके पीड़ा से नदियां भी, रोकर नहीं हारी
उनकी यातनां के राग, मशाल से हें जलते
खौलते शीशे-सा कलकल, हैं रात-दिन चिल्लाती

इतिहास था कैसा, बांधा गले में जिनके मटका?
झाड़ू बांधकर पीछे जिनकी, पहचान मिटा डाली
हमारा बसंत, सावन के आंसुओं से भर डाला
चमन न महक सका जिस पर, वर्षों से घटा छायी

कटती जुबान, कान में खौलता शीशा कोई सह ले
गर्म कील की चुभन से, वसुन्धरा हो गई लाली
कील शरीर में दिखते हैं, जैसे नागफनी का पौधा
घरों के आंचलों को, चीर-चीर नंगी घुमा डाली

मेरे मन की लहरों में अब तूफान उठ गया है
हवाओं से मिलके ज्वाला में ढल गया है
अपने अस्तित्व के लिए चट्टान बन गया है
अब लड़ने के लिए बारूद बम कमान बन गया है
</poem>
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