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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
}}
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<poem>
अग्नि कुण्ड में जला-जलाकर, राखों में ढकने वाले
सती प्रथाओं में महिलाओं को जलाये ये मतवाले
जिंदा जलती चीख-चीख, कर खून की बहती धारें
जलती नारी देख, पर उनके आंख में नहीं पड़े छाले
नारी का सम्मान न करते, जिंदा उसे जलाते हैं
हत्याओं का जश्न मनाकर, होली वही मनाते हैं
साल हजारों सदियां कितनी खूनों में है डूब चुकी
आंखों से खूनों की धारें नदियां बनकर सूख चुकी
नंगा बदन खुमाये कितने गांव शहर चौराहों पर
सामूहिक दुष्कर्म करके टांगे खंभे औ’ पेड़ों पर
देव दासी बना, रात-दिन, रास रचाया करते हैं
धर्म नाम पर मंदिर के, कोठे पर बिठाया करते हैं
सास-बहू को कैद किए जो, घूंघट में अकुलाती हैं
भरे समाज बोले गर तो, शर्मसार की जाती हैं
दीन-दलित की महिलाएं, उनसे बेइज्जत की जाती हैं
अगर विरोध कर दें वे कुछ, तो नीलाम की जाती हैं
जन-मन का भी गीत गाकर वो, माँ का राग सुनाते हैं
जो बहू ठूस घर में अपने, आजाद नहीं कर पाते हैं
गांव में दलित पिछड़ों के घर, होली में झोंके जाते हैं
चारों ओर घूम-घूमकर, डंडा और बजाते हैं
वे अपने घर से पांच-पांच, कंडे के टुकड़े लाते हैं
डाक होलिका में उसे फिर फगुआ रास रचाते हैं
दलित पिछड़ों के घर में घुस, बहू को रंग लगाते हैं
इसी बहाने छेड़छाड़ कर, दुष्कर्म भी कर जाते हैं
छेड़छाड़ आतंक मचाती, हर रंगों की टोली है
ऊपर से ये कहते यारो, बुरा न मानो होली है
रंग लगाते घर में घुस, समान चुरा ले जाते हैं
पानी कीचड़ रंग अवीर, कपड़े फाड़ चिलाते हैं
दहेज न मिलने पर, बहुओं को जिंदा जलाते हैं
मार पीट जिंदा जला, होलिका सी हाल बनाते हैं
हत्याओं का पर्व छिपाने, रंग गुलाल उड़ाते हैं
याद खून की होली को, रंगों से भर जाते हैं
दारू गांजा चरस अफीम, भांग संस्कृति फैलाते हैं
नशा खोरी में फसा समाज, दलदल में ले जाते हैं
समझौता करने वाले, इन रंगों में खो जाते हैं
इतिहास भूल होली का, पकवान बनाकर खाते हैं
</poem>
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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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अग्नि कुण्ड में जला-जलाकर, राखों में ढकने वाले
सती प्रथाओं में महिलाओं को जलाये ये मतवाले
जिंदा जलती चीख-चीख, कर खून की बहती धारें
जलती नारी देख, पर उनके आंख में नहीं पड़े छाले
नारी का सम्मान न करते, जिंदा उसे जलाते हैं
हत्याओं का जश्न मनाकर, होली वही मनाते हैं
साल हजारों सदियां कितनी खूनों में है डूब चुकी
आंखों से खूनों की धारें नदियां बनकर सूख चुकी
नंगा बदन खुमाये कितने गांव शहर चौराहों पर
सामूहिक दुष्कर्म करके टांगे खंभे औ’ पेड़ों पर
देव दासी बना, रात-दिन, रास रचाया करते हैं
धर्म नाम पर मंदिर के, कोठे पर बिठाया करते हैं
सास-बहू को कैद किए जो, घूंघट में अकुलाती हैं
भरे समाज बोले गर तो, शर्मसार की जाती हैं
दीन-दलित की महिलाएं, उनसे बेइज्जत की जाती हैं
अगर विरोध कर दें वे कुछ, तो नीलाम की जाती हैं
जन-मन का भी गीत गाकर वो, माँ का राग सुनाते हैं
जो बहू ठूस घर में अपने, आजाद नहीं कर पाते हैं
गांव में दलित पिछड़ों के घर, होली में झोंके जाते हैं
चारों ओर घूम-घूमकर, डंडा और बजाते हैं
वे अपने घर से पांच-पांच, कंडे के टुकड़े लाते हैं
डाक होलिका में उसे फिर फगुआ रास रचाते हैं
दलित पिछड़ों के घर में घुस, बहू को रंग लगाते हैं
इसी बहाने छेड़छाड़ कर, दुष्कर्म भी कर जाते हैं
छेड़छाड़ आतंक मचाती, हर रंगों की टोली है
ऊपर से ये कहते यारो, बुरा न मानो होली है
रंग लगाते घर में घुस, समान चुरा ले जाते हैं
पानी कीचड़ रंग अवीर, कपड़े फाड़ चिलाते हैं
दहेज न मिलने पर, बहुओं को जिंदा जलाते हैं
मार पीट जिंदा जला, होलिका सी हाल बनाते हैं
हत्याओं का पर्व छिपाने, रंग गुलाल उड़ाते हैं
याद खून की होली को, रंगों से भर जाते हैं
दारू गांजा चरस अफीम, भांग संस्कृति फैलाते हैं
नशा खोरी में फसा समाज, दलदल में ले जाते हैं
समझौता करने वाले, इन रंगों में खो जाते हैं
इतिहास भूल होली का, पकवान बनाकर खाते हैं
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