भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
 
फिर से शहनाइयाँ, शामियाने में हैं
दो बड़ी कुर्सियाँ, शामियाने में हैं
 
जब, जहाँ चाहिये, बस लगा लीजिये
अनगिनत ख़ूबियाँ, शामियाने में हैं
रस्मे-जयमाल, फूलों की बरसात और
हर तरफ़ सिसकियाँ, शामियाने में हैं
मुद्दतों से यहाँ का रहा है चलन
आज भी शादियाँ, शामियाने में हैं
ये छुड़ाता है घर, गाँव, सखियाँ 'रक़ीब'
बस यही ख़ामियाँ शामियाने में हैं
</poem>
384
edits