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हे बैरि / धनेश कोठारी

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<poem>
पहाड़ कि गति मा

पसरिं हर्याळी कू

न बण तू बैरि

तेरि कुलाड़ी कि एक कचाक

त्वैकू ह्वेजाली

जल्मूं कि खैरि



हरि-भरि अंगड़्योंन्छन

यि डांडी-कांठ्यों सजाणा

जुग जल्मूं बटि

मन्खि कू दगड़ु निभाणा

गति मान्यूंकि

न निखोळ तू खल्ला

न हो अजाण निठुर कैरि



देख हिमाला जुगराज बण्यूं च

गंगा जमुना बगणिं च

धर्ति रंगीली सजिं च

लकदक गौंणौ मा

सि ब्वारी-म्वारी लगणिंन्

जरा हेरि



ठंडु-ठंडु छोयों कू पाणि

रितु कि पछाण बि

यूं मा बसिं सांस बि

ज्यू अर पराण बि

ह्यूंद मा निवाति चदरि

रूड़्यों छैल कि छतरि

बसगाळ रड़दा डांडौ कू आधार

बसन्त/ मन कू मौळ्यार



तिन कबि पैंछु बि नि दे

तब्बि यूंन नजर नि फेरि

तेरि कुलाड़ी कि एक कचाक

त्वैकू ह्वेजाली

जल्मूं कि खैरि ॥
</poem>
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