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जैसे तारों से आती है टंकार...<br>
और सारा दिन निस्‍तेज पड़े <br>
चाँद चांद की रौशनी <br>
वापस आने लगती है <br>
प्‍यार<br>
कि आत्‍मा अपने ही शरीर से बेरुखी बेरुख़ी करती <br>
कहीं और जा समाने को मचलने लगती!<br>
प्‍यार <br>
और खुशियों ख़ुशियों का ठाठें मारता पारावार चतुर्दिक <br>
और आसमान डूबता चला जाता है समंदर में <br>
उसके अनंत खारेपन को <br>
प्‍यार <br>
और अरुणाकाश में पसरने लगते हैं सप्‍तवर्णी रंग <br>
पंछियों के परों को स्निग्‍ध और उर्जामयी ऊर्जामयी करते हुए <br>
प्‍यार <br>
और पूरी रात नशे में फूटते हरसिंगारों को सँभालती संभालती <br>
थकने लगती है रात <br>
और जा गिरती है सुबह की गोद में <br>
प्‍यार <br>
एक धीमी-सी आकुल पुकार <br>
जो बहुगुणित होती कंपाने कँपाने लगती है <br>
आकाशगंगाओं को <br>
और तारों की छीजती बेचैन रौशनी <br>
दो '''2 <br>
प्‍यार <br>
जैसे एक हाहाकार <br>
आकुल -व्‍याकुल जनों की नींद में जगता <br>
दु:स्‍वप्‍नों की तरह <br>
जनसमुद्र की अनंत पछाड <br>
एक विनम्र इनकार <br>
विश्‍वबाज़ार के सुनहले ऊँटों को <br>
कि हम जो भी , जैसे भी है <br>स्‍वतंत्र और समृद्धि समृद्ध हैं <br>
अपनी आत्‍मा के ताप के साथ <br>
प्‍यार<br>
अनंत उधार शब्‍दों का <br>
और उसका मोल चुकाए बिना <br>
उससे अपनी किस्‍मत क़िस्‍मत <br>
चमकाए फिर सकते हो <br>
प्‍यार<br>
पीडि़त जनें पीड़ित जनों की आत्‍मा का <br>
एकल और संयुक्‍त इश्‍तहार कि <br>
हां हाँ, हम अकेले है <br>पीडि़त हैं , क्षुधित हैं <br>
पर हम ही भर सकते हैं <br>
विश्‍व का अक्षय अनंत अन्‍न,रत्‍नकोश <br>
प्‍यार प्‍यार प्‍यार <br>
{ अरूणा राय के लिए , एक सुबह जिनका चैट पर इंतजार इंतज़ार करते यह कविता लिखी थी }
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