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Kavita Kosh से
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पूछा फिर भी कुछ नहीं, मन में यही मलाल।।
हाथ जले तन भी जला, लगे हमीं पर दाग।।
उनकी चुप्पी ही रही ,कही न कोई बात।
करना है तो कीजिए,लाख बार धिक्कार।
इतना अपने हाथ में ,आएँगे हम द्वार।।
दुख अपने दे दो हमें, माँगी इतनी भीख।
द्वार भोर तक बन्द थे,हम क्या देते सीख।।
जाने कैसे खुभ गई,दिल में तिरछी फाँस।
जब जागोगे भोर में ,खोलोगे तुम द्वार।
देहरी तक भीगी मिले, सिसकी , आँसू -धार।।'''9'''
सबके अपने काफिले,सबका अपना शोर।
निपट अकेले हम चले,अस्ताचल की ओर।
छोड़ जगत को चल पडूँ ,होकर मैं मजबूर।।
बहुत हुए अपराध हैं,बहुत किए हैं पाप।
आया था मैं द्वार पर,हर लूँ तेरी पीर।
आएगा अब ना कभी,द्वारे मूर्ख फ़क़ीर।
क्रोध लेश भर भी नहीं , ना मन में सन्ताप।
उसको कुछ कब चाहिए,जिसके केवल आप।
सबसे ऊपर तुम मिले,इस जग का उपहार।
बस इतनी -सी कामना,हर पल रहना साथ।
दोष हमारे भूलकर,सदा थामना हाथ।।
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