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131कभी न समझे आज तक ,हम विधना का खेल।दिया बिछौड़ा उस घड़ी,जब होना था मेल।।132फूल खिलाने हम चले,जले देखकर लोग।मन में जिनके पाप है, उन्हें लगा यह रोग।133सारे सुख मन -प्राण से , किए तुम्हारे नाम । फिर भी रुक पाता नहीं, जीवन का संग्राम ॥ 134रिश्ते कुहरे हो गए, रस्ते हुए कुरूप।सर्दी में मिलती नहीं,ज़रा प्यार की धूप।।135रिश्तों की जंजीर भी,आज बनी अभिशाप।जो भी जितने पास हैं , देते उतना ताप ।136झोली छोटी दी हमें,जीवन के पल चार ।कहाँ छुपाएँ, साँझ को,अम्बर जैसा प्यार ।।137अलकों की जंजीर ने,बाँधा लिया हर छोर।साँसों की खुशबू उड़ी,मन को किया विभोर।।138भूल न पाए हम कभी, कैसे करते याद ।जब तुम प्राणों में बसे, कौन सुने फ़रियाद॥139अपनों ने हम पर किए , सदा पीठ पर वार ।दोष भला देते किसे, हम थे ज़िम्मेदार ।।140उनको भी अपना कहा, जिनके मन में खोट ।पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हम हुए, फिर भी देते चोट ॥141घिरा कोहरा है घना , किसने समझे भाव ।आँखें भीगी रात भर , हरे हुए सब घाव ॥142जिस दिन पूछा था कभी, किसी दुखी का हाल ।उस दिन तो दिनभर किया , जमकर खूब बवाल ॥143मीत वेश में हैं छुपे,दुश्मन चारों ओर।जिन्दा हैं हम सोचकर, मिल जाएगी भोर ॥144भूख , गरीबी , कोहरा , तीनों का है राज।तन पर कपड़े तक नहीं, निर्दय हुआ समाज॥145रोम रोम चन्दन हुआ,'''गले मिले जो आप।'''पल भर में ही मिट गए,जन्मों के संताप।।
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