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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
जुआ है ये , मुनाफा बढ़ भी सकता है
वगरना फिर भुगतना पड़ भी सकता है।

सवेरा कौन जाने खोल दे किस्मत
हवा के साथ पत्ता झड़ भी सकता है।

अगर बिकता नहीं है वक़्त पर गेहूँ
पड़ा गोदाम में वो सड़ भी सकता है।

वो बच्चा है बहल जाता खिलौने से
वहीं रोटी की ज़िद पर अड़ भी सकता है।

ज़मीर उसका हुआ इक दिन अगर ज़िंदा
वो तूफानों से खुल कर लड़ भी सकता है।

रहे मालिक की मर्ज़ी तो अपाहिज भी
हिमालय सी पहाड़ी चढ़ भी सकता है।

कभी 'विश्वास' यदि पासा पलट जाये
ज़माना ये तमाचा जड़ भी सकता है।

</poem>
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