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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
घर बना, तोड़ कर फिर बनाने लगे
हाथ लगता है उनके ख़ज़ाने लगे।

भोर में एक सूरज उगा जिस जगह
मुंह सितारे दनादन छुपाने लगे।

मां की ममता का होने लगा ज़िक्र जब
हमको बचपन के दिन याद आने लगे।

जिसने सरकार का धन लपक कर लिया
इस ज़माने में वो ही सयाने लगे।

ज़ुल्म से बात लड़ने की जब भी उठी
सख़्त अफ़सोस सब दुम दबाने लगे।

मेरे घुंघरू न माने पड़े बोल जब
वो ग़ज़ल मीर की गुनगुनाने लगे।

शान से उनकी देहरी चमकने लगी
वक़्त से जिनके बच्चे कमाने लगे।

जब से 'विश्वास' ताई विधायक हुईं
लोग बेटी के रिश्ते को आने लगे।

</poem>
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