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<poem>
उ सुरूज लोक
आ इ धरती पर
हमहीं बेआपत ह‍ईं।
गेयान के दुश्‍मनन के
संहार खातिर
हमहीं धनुषबाण उठाईं ला।
अदमी जाह घरी
अपना भीतर के अज्ञान से
लड़ाई ठानेला
ताह घरी हमहीं
​​ओकरा साथ दिहींला॥​6॥

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥6॥


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