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|रचनाकार=सुनीता पाण्डेय 'सुरभि'
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<poem>
किरदार की भी तुमने हकीकत नहीं देखी।
जो दिल में मेरे है वह मोहब्बत नहीं देखी॥

हिम्मत से बदल सकती हूँ क़िस्मत का लिखा मैं-
क़िस्मत ने अभी मेरी बग़ावत नहीं देखी।

अपनों के दरम्यान भी अब गैरियत—सी है-
क्या तुमने बदलती हुई फितरत नहीं देखी।

भाई ने मुझे देख के मुँह फेर लिया है-
गैरों में भी ऐसी तो अदावत नहीं देखी।

पुरखों की निशानी है हँसी ताजमहल जो-
दुनिया में कोई ऐसी इमारत नहीं देखी।

भड़का रहे हैं लोगों में नफरत की आग को-
वोटों के लिए ऐसी सियासत नहीं होती।

चढ़ कर बुलंदी पर तुम इतराने लगोगे-
अच्छा है तुमने मंजिले-शोहरत नहीं देखी।

छू सकती हूँ 'सुनीता' मैं इस आसमान को-
परवाज की तुमने मेरी ताकत नहीं देखी।
</poem>
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