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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
ज़मीं के मालिकों ने हम पे ज़ुल्म ढाया बहुत
किया वसूल हमसे रहने का किराया बहुत।

सुना था हमने भी कि रहम-दिल फ़लक है मगर
हमें तो चांद ने ही रात में जलाया बहुत।

मिरी नज़र का ऐब कह के भूल जाओ इसे
कि देखता हूँ खुद से ऊंचा अपना साया बहुत।

पता थी पहले से मगर नहीं जताया कभी
वो बात जिसको तुमने हमसे था छुपाया बहुत।

मैं उससे मुंह जो मोड़कर चला तो चल ही पड़ा
न लौटा फिर कभी कि वक़्त ने बुलाया बहुत।

करूँ मैं शुक्रिया भी किसको-किसको कैसे अदा
ज़माने से बग़ैर मांगे मैंने पाया बहुत।

मिला तो एक पल में ही बिछड़ गया वो 'नयन'
तमाम उम्र ख़्वाब में जो मेरे आया बहुत।

</poem>
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