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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हिला के रख देती है कलेजा हवा का रुख़ टहनियों से पूछो
मगर महब्बत है क्या गुलों से लिपट गईं तितलियों से पूछो।
ये स्याह ज़ुल्फें लपेट लो तुम चलो अदा से मगर छुपाकर
लजा-लजा कर चली गई क्यों उठी थीं जो बदलियों से पूछो।
किसी ने तोड़ा है अपना वादा किसी ने तोड़ीं है अपनी कसमें
हमें शिकायत नहीं मगर उस रक़ीब की फब्तियों दे पूछो।
न अब्र काले घिरे हुए हैं न आज बादे-सबा चली है
हमारे दिल पर गिरी कहां से तुम अपनी इन बिजलियों से पूछो।
नया ज़माना नये ख़यालों के दौर में भी ये कैसी बंदिश
खुली फज़ाओं की सांस है क्या डरी हुई लड़कियों से पूछो।
न कोई नफ़रत न कत्लोगारत न कोई मज़हब का शोर ही है
महब्बतों से भरी हैं कैसे जनाब इन बस्तियों से पूछो।
न पूछो हमसे कि नींद कल शब न आई क्यों क्या है गुज़री हम पर
रक़म हुई कैसे दास्तां ये क़लम से या उंगलियों से पूछो।
</poem>
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|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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हिला के रख देती है कलेजा हवा का रुख़ टहनियों से पूछो
मगर महब्बत है क्या गुलों से लिपट गईं तितलियों से पूछो।
ये स्याह ज़ुल्फें लपेट लो तुम चलो अदा से मगर छुपाकर
लजा-लजा कर चली गई क्यों उठी थीं जो बदलियों से पूछो।
किसी ने तोड़ा है अपना वादा किसी ने तोड़ीं है अपनी कसमें
हमें शिकायत नहीं मगर उस रक़ीब की फब्तियों दे पूछो।
न अब्र काले घिरे हुए हैं न आज बादे-सबा चली है
हमारे दिल पर गिरी कहां से तुम अपनी इन बिजलियों से पूछो।
नया ज़माना नये ख़यालों के दौर में भी ये कैसी बंदिश
खुली फज़ाओं की सांस है क्या डरी हुई लड़कियों से पूछो।
न कोई नफ़रत न कत्लोगारत न कोई मज़हब का शोर ही है
महब्बतों से भरी हैं कैसे जनाब इन बस्तियों से पूछो।
न पूछो हमसे कि नींद कल शब न आई क्यों क्या है गुज़री हम पर
रक़म हुई कैसे दास्तां ये क़लम से या उंगलियों से पूछो।
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