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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
किस क़दर मजबूर हैं कुछ आदमी
ग़म-खुशी से दूर हैं कुछ आदमी।

बेबसी लाचारियों से जूझते
उम्र भर मजबूर हैं कुछ आदमी।

अपनी नाकामी पे खुद जलते हुए
बन गये तन्दूर हैं कुछ आदमी।

किसको पैरों से कुचलते चल रहे
क्या नशे में चूर हैं कुछ आदमी।

जानते हैं वक़्त की मुट्ठी में हैं
फिर भी क्यों मग़रूर हैं कुछ आदमी।

काम चल सकता नहीं कुछ के बग़ैर
यूँ किसे मंज़ूर हैं कुछ आदमी।

अब तलक हैं बज रहे दिल में मिरे
माँ क़सम सन्तूर हैं कुछ आदमी।
</poem>
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