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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
क्या ज़माने थे हमें सब देखते थे प्यार से
हमको दुश्मन भी लगा करते थे अपने यार से।

हर घड़ी कुछ कर गुज़रने की लगी रहती थी धुन
बातों-बातों में लड़ा देते थे सर दीवार से।

शहर के कुछ आलिमों में हम भी जाते थे गिने
यूँ तो सड़कों पे फिरा करते थे हम बेकार में।

ज़िन्दगी की जंग के खुलते थे कितने मोर्चे
हम भी लड़ते थे ग़ज़ल नग़मात के हथियार के।

जीत का किस्सा हमारा मुख़्तसर में है यही
हम नहीं हारे हैं अपनी अब तलक की हार से।

वुसअतें चाहत की अपनी क्या बताएं माँ क़सम
दोस्ती गुल से की जितनी ही की ख़ार से।

दिल का बिकना जान का सौदा नहीं होगा क़ुबूल
आख़िरत तक हम लड़ेंगे बेरहम बाज़ार से।
</poem>
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