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वहाँ, खेतों और मैदानों पर जहाँ उतरती है शाम,
जहाँ खड़े हैं सर्द देवदार और लहराती है जुही
लौहबाड़ के पार उस बाग़ में सोते सोए हुए सरेआम ।
चाकू की धार और ताश की गड्डियों के थे वे दिन ।
और झलक रही थी फीकी सी चमक सुनहरी वहाँ,