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|रचनाकार=कृष्ण 'कुमार' प्रजापति
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<poem>
वो ख़फ़ा जो हुआ तो ख़फ़ा ही रहा
मैं बहुत देर तक सोचता ही रहा

वो आया चला भी गया रूठकर
मैं बड़ी दूर तक देखता ही रहा

उसने अपने गले से लगाया नहीं
पाँव पर गिर पड़ा तो पड़ा ही रहा

उम्र भर बाल बाँका नहीं कर सका
उम्र भर मेरे पीछे लगा ही रहा

लोग मारे गये घर के घर लुट गये
चैन से घर पे सोया सिपाही रहा

वो न आए सहर हो गई आज भी
दर हमारा खुला का खुला ही रहा

वक़्त बदला तो हर चीज़ बदली “कुमार”
वो न रस्ते रहे वो न राही रहा
</poem>
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