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एक अजनबी / सुनीता शानू

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एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा,
क्यूँ कोई दिल में आज मेरे धड़कने लगा…

किससे मिलने को बेचैन है चाँदनी,
क्यूँ मदहोश है दिल की ये रागिनी,
बनके बादल वफ़ा का बरसने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा

गुम हूँ मैं एक गुमशुदा की तलाश में
खो गया दिल धड़कनों की आवाज़ में
ये कौन साँस बनके दिल में धड़कने लगा,
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा

हर तरफ फ़िजाओं के हैं पहरे मगर,
दम निकलने न पायें जरा देखो इधर,
जिसकी आहट पर चाँद भी सँवरने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा
रात के आगोश में फूल भी खामोश है
चुप है हर कली भँवरा हुआ मदहोश है
बन के आईना मुझमें वो सँवरने लगा
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा

ना मैं जिन्दा हूँ ना मौत ही आयेगी
जब तलक न उसकी खबर ही आयेगी
बनके आँसू आँख से क्यूँ बहने लगा,
एक अजनबी अपना सा क्यूँ लगने लगा।
</poem>
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