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<poem>
1-

ऊँच नीच की सोच जगत में, है मानवता पर भारी।
छुआछूत की कटें सलाखें, नहीं बनी अब तक आरी॥
जाति-धर्म का हरदिन झगडा, लगते हैं हरदिन नारे।
बदलें यह हालात अगर तो, लोग रहें हिलमिल सारे॥

2-
देवालय में पूजी जाती, लुटती सड़कों पर नारी।
घूम रहे हैं खुले सपोले, लंपट कामी व्यभिचारी॥
नहीं गर्भ में नहीं धरा पर, रही सुरक्षित अब मादा।
सोती हैं फिर भी सरकारें, भूल गईं हैं हर वादा॥

3-
नहीं सुरक्षित रहे निकेतन, बहुत बढ़ी है बदहाली।
लुटे अस्मिता उसके द्वारा, जिसके जिम्मे रखवाली॥
आश्रयदाता ही करते हैं, शरणागत की बिकवाली।
पहन मुखौटे रौंद रहे हैं, कलियों को अब ख़ुद माली॥
</poem>
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