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आजकल मलाई / अभि सुवेदी

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कहीं जानै पर्ने चिन्ताको उज्यालोले पनि लखेट्दैन
आजकल मलाई !
 
'''लीजिए, अब पढ़िए, इसी कविता का हिन्दी अनुवाद'''
 
अभि सुवेदी
आजकल मुझे
 
लगता है, आजकल मैं अपने साथ
अक्सर एक छाया को ढोते हुए चलता हूँ।
जिस तरह पहाडियोँ के अन्तरङ्ग को समझने के लिए
धीरे-धीरे चारों ओर चक्कर लगाती हैं काली घटाएँ,
उसी तरह
कई आकृतियों में चक्कर लगाते हैं औरों के दिल
मेरे चारों तरफ ।
 
अपने ही दिल को ढोते हुए चलता हूँ मैं ।
आजकल मुझे ऐसा लगता है
कि औरों के दिल के बोझ तले दब-दबकर मैं
ख़ुद की अस्मिता से ज़्यादा
किसी और ही का जीवन जी रहा हूँ ।
 
जब कहा जाता है
बहुत से लोग तुझ पे नजर लगाए हुए हैँ, तो
तुम अपरिचित आँखों की बाढ़ पर बह रहे होते हो ।
जब कहते हैं
सभी के दिलों को लेकर चल रहे हो, तो
तुम वक़्त की पुरानी बस्तियाँ ढूँढ़कर
उन्हें ठहराने की जगह खोज रहे होते हो ।
दिलों के बाढ़ पर किसी को धकेल कर कहते हैँ
इसी तरह का है इतिहास ।
 
किसी की चमकती नज़रों में सीधा देखने पर
कोई पीड़ा दिखाई देती है तो
कहीँ कोई मजबूत संरचना टूट जाती है ।
कोई दिल के भीतर के खण्डहर दिखाकर
दर्द जगाता है तो
तुम्हारे दिल में ही भूकम्प उठने लगता है।
 
लगता है, इसीलिए
इनसान का वक़्त धुन्ध की तरह
सभी के दिलों को छूते हुए उड़ता है ।
कभी-कभी लगता है,
दर्जनों मुर्गों की बाँग के बाद भी
नहीं होगी कल की सी सुबह ।
ऐसा लगता है कि
हज़ारों चिड़ियों के मिलकर गाने पर भी
वैसी शाम आकाश पर नहीं ढुलकेगी
जैसी शाम उतरी थी कल ।
 
इसीलिए आजकल
अपने ही छोटी-छोटी सुबहों को
अक्षरों मे कुरेदकर
काग़ज़ों के मैदानों पर बिखेर देता हूँ
और शामों को पकड़कर
कविताओं के क्षितिज पर टाँग देता हूँ ।
 
ज़िन्दगी का मतलब
पहाड़ के ऊपर चढ़ चुकने के बाद
एक लम्बा निःश्वास लेते हुए
यह कहना ही तो है
“ओफ़ ! सब यादें घाटी में ही छूट गईं"
 
शहर मे पावँ रक्खे कितने ही दिन हो चुके ।
यहाँ कितने ही वक़्त को मैं
देखता आया हूँ
पुराने घरों और मुहल्लों में
देवालयों और गुम्बदों के खण्डहरों में
गिरकर घायलों की तरह तडपते हुए।
 
ऐसा लगने लगा है
कि, दिलों और तमन्नाओं के भी
खण्डहर होते हैं;
जहाँ आदमी
एकल गायन गा-गा कर
ख़ुद ही का शहीद-दिवस मनाता है
और अकेले उद्घोषणा करता है
छिपाता है हथियारों को
अपने उस को फँसाने के लिए।
 
यहाँ आजकल
यात्राओं का कोई मंज़िल नहीं,
कुछ जागृति के रास्ते से
ढुक जाते हैं सपनों के अन्दर,
कुछ कन्धों पे रोशनी ढोकर
अन्धेरों को ढूँढ़ते चलते हैं ।
टूट कर गिर जाते हैं सपने
जागृतियाँ क्षत-विक्षत हो जाती हैं ।
एक किशोर को
अपने कान की बग़ल से उड़ती गोलियों की आवाज़ो में
वह संगीत सुनाई देता है
जिसे वह ख़ुद घर पर छोड़ आया है।
 
झूठे अभिनय
अब सच्चे खेल हो चले हैं ।
उनको देख
न चाहते हुए भी
ताली मार रहा होता हूँ, मैं
भीड़ के किनारे ख़ुद खड़ा होकर
वाह ! वाह ! करते ।
 
वक़्त के कानों को
मेरी ताली सुनाई नहीं देती ।
मेरा समर्थन या विरोध से
किसी खेल में हार या जीत नहीं होती ।
 
कहानियाँ ढूँढ़ने के लिए आनेवालों का इन्तज़ार कर
अपने सभी अफ़सानों को समेटकर
एक रँगमञ्च पर खड़ा कर देता हूँ मैं
और तन्त्र के आलिङ्गन में बन्धे हुए
आकाश-भैरव के नृत्यों को
कपड़ों पर फैलाकर
किसी के आने का इन्तज़ार करता रहता हूँ ।
 
कभी-कभी लगता है
संस्कृति जिसे कहते हैं
वह जैसे मेरे ही सपनों की खेती है;
वक़्त पर
कुछ बना डालने की तमन्ना से
खुद का देखा हुआ
खुद ही टाँगा हुआ आकाश है ।
 
मैं पहले ही छोड आया हूँ घाटियाँ और पहाड़ियाँ
और आजकल
चलता हुआ पगडण्डियों पर
सभी को
एक ही आकार देना चाहता हूँ ।
 
मझे आजकल
औरों के दिलों के खण्डहरों से
कुछ रचनाएँ उठा लाने की चाहत परेशान करती है,
आजकल मैं
यह सोच-सोचकर परेशान हूँ
कि अपना आकाश औरों को दे दूँ
जिससे शायद कहीं कुछ बन जाए ।
 
लेकिन लगता है,
मेरी इस दौड़ के अन्दर कहीं ऐसे चबूतरें भी हैं
जो औरों की नज़रोँ के साथ-साथ
अपनी ही किसी यात्रा में दौड़ते हैं ।
 
मुझे आजकल
कहीं चढ़ते हुए
ऊँचाई परेशान नहीं करती
उतरते वक़्त
घाटी के परेशानियाँ असर नहीँ करतीं ।
 
आजकल मुझे
कभी थका हुआ आकाश भी स्पर्श करे तो
कहीं जाने की चिन्ता की रोशनी पीछा नहीं करती।
 
'''नेपाली से सुमन पोखरेल द्वारा अनूदित'''
</poem>
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