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{{KKRachna
|रचनाकार=हरीश प्रधान
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
आज मेरे देश को, क्या हो गया है
हर आदमी, दो मुहाँ हो गया है
समस्याएँ, सुरसा का मुँह हो गयी हैं
जीवन अँधेरा कुआँ हो गया है
अहित कर सकूं, तो ही इज़्ज़त करोगे
भला आचरण, तो धुआँ हो गया है
तस्करी, लूट चोरी, व काली कमाई
किया जिसने धन्धा, रहनुमाँ हो गया है
भरी जेब जिसकी, बड़ा आदमी है
ये माहौल ही, बदनुमां हो गया है।
</poem>
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आज मेरे देश को, क्या हो गया है
हर आदमी, दो मुहाँ हो गया है
समस्याएँ, सुरसा का मुँह हो गयी हैं
जीवन अँधेरा कुआँ हो गया है
अहित कर सकूं, तो ही इज़्ज़त करोगे
भला आचरण, तो धुआँ हो गया है
तस्करी, लूट चोरी, व काली कमाई
किया जिसने धन्धा, रहनुमाँ हो गया है
भरी जेब जिसकी, बड़ा आदमी है
ये माहौल ही, बदनुमां हो गया है।
</poem>