भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।
'''सूत्रधार'''
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;
या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों
'''नटी'''
इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,
मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;
मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी
कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो
'''सूत्रधार''' सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है
'''नटी'''
सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा मॅ मेंसमाधिस्थ संसार अचेतन बह्ता – बहता- सा लगता है.है।
'''सूत्रधार '''स्वच्छ कौमुदी मॅ में प्रशांत जगती यॉ यों दमक रही है,सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पन मॆ.दर्पण में।शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर मॅ मेंप्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो . ।
(ऊपर आकाश मॅ रशनाऑ में रशनाओं और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है. है। बहुत- सी अप्सराऍ अप्सराएँ एक साथ नीचे उतर रही हैँ).।
'''नटी'''शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणनक्वणन-क्वणन स्वर कैसा?अतल व्योम-उर मॅ में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैहैं?उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणॅ किरणें लगी लजाने;
ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायॅ प्रतिमायें उतर रही है?
उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?
या देवॉ देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई है?उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की नई अर्चियॉअर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले मॅमें?या वसंत के सपनॉ सपनों की तस्वीरॅ तस्वीरें घूम रही हैतारॉतारों-भरे गगन मॅ फूलॉमें फूलों-भरी धरा के भ्रम से?
'''सूत्रधार '''लो, पृथ्वी पर आ पहुंची पहुँची ये सुश्मायॅ सुषमायें अम्बर की उतरे हॉ ज्यॉ हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलॉ के.फूलों के।पद-निक्छेपॉ मॅ निक्षेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की,सजल कंठ से गीत ,हंसी हँसी से फूल झरे जाते है.है।तन पर भीगे हुए वसन है किरणॉ किरणों की जाली के,पुश्परेण-भूशित सब के आनन यॉ यों दमक रहे है,कुसुम बन गई हॉ हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर.कर।
'''नटी'''फूलॉ फूलों की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ है?
'''सूत्रधार '''नहीनहीं, चन्द्रिका नहीनहीं, न तो कुसुमॉ कुसुमों की सहचरियाँ है,ये जो शशधर के प्रकाश मॅ फूलॉ में फूलों पर उतरी है,मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाऍ प्रतिमाएँ हैदेवॉ देवों की रण क्लांति मदिर नयनॉ नयनों से हरने वालीस्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की.की।
'''नटी'''पर,सुरपुर को छोड आज ये भू पर क्यॉ क्यों आई है?
'''सूत्रधार'''यॉ यों ही, किरणॉ किरणों के तारॉ तारों पर चढी हुई, क्रीडा मॅक्रीड़ा में,इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है.है।
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहो मॅ में भरने को अकुलाता हैगगन, भूमि, दोनॉ दोनों अभाव से पूरित है,दोनो के अलग-अलग है प्रश्न और है अलग-अलग पीडाये.पीड़ायें।हम चह्ते तोड चाहते तोड़ कर बन्धन उड्ना उड़ना मुक्त पवन मॅमें,कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते है.है।
एक स्वाद है त्रिदिव लोक मॅमें, एक स्वाद वसुधा पर,कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालॉ को .वालों को।किन्तु ,सुनॅ सुनें भी तो, ये परियाँ बातॅ बातें क्या करती है?
{नटी और सूत्रधार वृक्श वृक्ष की छाया मॅ में जाकर अदृश्य हो जाते है. अप्सरायॅ है। अप्सरायें पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली और झरनॉ झरनों के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती है}
'''परियॉ परियों का समवेत गान'''फूलॉ फूलों की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई.आई।
फूटी सुधा-सलिल की धारा
डूबा नभ का कूल किनारा
सजल चान्दनी की सुमन्द लहरॉ मॅ लहरों में तैर नहाओ री !यह रात रुपहली आई.आई।
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन मॅ में मौन मगन है.है।ऐसे मॅ में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !यह रात रुपहली आई.आई।मुदित चाँद की अलकॅ अलकें चूमो,तारॉ तारों की गलियॉ मॅ गलियों में घूमो,झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणॉ किरणों के तार बढाओ री !यह रात रुपहली आई..आई।।
'''सहजन्या'''धुली चाँद्ननी मॅ चाँदनी में शोभा मिट्टी की भी जगती है,कभी-कभी यह धरती भी कित्नी कितनी सुन्दर लगती है!जी करता है यही रहॅ रहें,हम फूलॉ मॅ फूलों में बस जायॅजायें!
'''रम्भा'''दूर-दूर तक फैल रही दूबॉ दूबों की हरियाली है,बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है.है।जी करता है, इन शीतल बून्दॉ मॅ बूँदों में खूब नहायॅ.नहायें।
'''मेनका'''
आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी है,
लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी है.है।जी करता है,फूलॉ फूलों को प्राणॉ प्राणों का गीत सुनायॅ.सुनायें। '''समवेत गान'''हम गीतों के प्राण सघन,छूम छनन छन, छूम छनन।
बजा व्योम वीणा के तार,
भरती हम नीली झंकार,
सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन.त्रिभुवन।छूम छनन छन, छूम छनन.छनन। सपनॉ सपनों की सुषमा रंगीन,
कलित कल्पना पर उड्डीन,
हम फिरती है भुवन-भुवन
छूम छनन छन, छूम छनन.छनन।
हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,
</poem>