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Kavita Kosh से
जग में रस की नदियाँ बहती,
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झिलमिल सी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
कहने वाले, पर कहते है,
हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता पर-वशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही
ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा गा गा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगीसाथीसंगी-साथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है;