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हमदर्दी / गौरव गिरिजा शुक्ला

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<poem>
कैसी हमदर्दी है, कैसी ये मसीहाई है,
ज़ख्म नासूर हो रहे, कैसी ये दवाई है।

उसके सजदे में मसरूफ़ हूं शाम-ओ-सहर
फिर भी वो रूठा है, कैसी ये ख़ुदाई है।

दिल, ये सांसें, सुकून-ओ-ख़्वाब सब तेरे हुए,
मेरा न कुछ बचा, कैसी ये जुदाई है।

जीतने की चाहत में इश्क की बाज़ी,
ख़ुद से ही हार गया, कैसी ये लड़ाई है।

वो छोड़ गया था मुझे मेरे ही हाल पर,
आज वजहें गिना रहा है, कैसी ये सफाई है।

तेरी यादें, तेरी बातें, तेरी कसमें, तेरे वादे,
अकेला छोड़ते नहीं, कहाँ कोई तन्हाई है।
</poem>