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{{KKRachna
|रचनाकार=गौरव गिरिजा शुक्ला
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
सूखी आँखों के पीछे बरसात छुपाए बैठा है,
इसलिए है खामोश कि गहरे राज़ दबाए बैठा है।
लाखों हैं दुनिया में दर्द की नुमाइश करने वाले,
वो ज़ख्मी दिल में अपने सारे जज़्बात छुपाए बैठा है।
आधी रोटी खाकर जिसने बच्चों की भूख मिटाई,
वो बूढ़ा बाप, भूखे पेट, हाथ फैलाए बैठा है।
टूटकर बिखर गया, हो गया बर्बाद, मगर फिर भी,
दिल भी कितना नादां है, आस लगाए बैठा है।
सबकुछ लुट गया उसका चंद कागज के पन्नों के सिवा,
उन ख़तों को ख़ज़ाने की तरह सीने से लगाए बैठा है।
महलों में रहने वाले अक्सर, कोसते हैं अंधियारे को,
वो गरीब अपनी चौखट पर चराग जलाए बैठा है।
गैर तो यूं ही बदनाम हैं बेवफाई के लिए,
हर शख़्स यहां अपनों से ही धोखा खाए बैठा है।
</poem>
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|रचनाकार=गौरव गिरिजा शुक्ला
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सूखी आँखों के पीछे बरसात छुपाए बैठा है,
इसलिए है खामोश कि गहरे राज़ दबाए बैठा है।
लाखों हैं दुनिया में दर्द की नुमाइश करने वाले,
वो ज़ख्मी दिल में अपने सारे जज़्बात छुपाए बैठा है।
आधी रोटी खाकर जिसने बच्चों की भूख मिटाई,
वो बूढ़ा बाप, भूखे पेट, हाथ फैलाए बैठा है।
टूटकर बिखर गया, हो गया बर्बाद, मगर फिर भी,
दिल भी कितना नादां है, आस लगाए बैठा है।
सबकुछ लुट गया उसका चंद कागज के पन्नों के सिवा,
उन ख़तों को ख़ज़ाने की तरह सीने से लगाए बैठा है।
महलों में रहने वाले अक्सर, कोसते हैं अंधियारे को,
वो गरीब अपनी चौखट पर चराग जलाए बैठा है।
गैर तो यूं ही बदनाम हैं बेवफाई के लिए,
हर शख़्स यहां अपनों से ही धोखा खाए बैठा है।
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