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मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,इस मूर्तिमान जग में महान था मैं विलुप्त कल रूप-हीन, कल मादकता की भरी नींद थी जड़ता से ले रही होड़,किन सरस करों का परस आज करता जाग्रत जीवन नवीन? मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ--बनूँ— किस कुम्भकार का यह निश्चय?मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,था भ्रमित हो रहा आसमान,उस कलावान का कुछ रहस्य होता फिर कैसे भासमान.भासमान। जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात, थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.अजान। भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ, क्या ज्ञान करेगा वह संचय.संचय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छीन,खो गया पूर्व गुण,रूप, रंगहो जग की ज्वाला के अधीन; मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी मृदुला करती मुझको कठोर ?'लपटें बोलीं, 'चुप, बजा-ठोंकलेगी तुझको जगती प्रवीण.प्रवीण।' यह,लो, मीणा बाज़ार लगा, होता है मेरा क्रय-विक्रय.विक्रय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट, अमरों ने अमृत दिखलाया, दिखलाया अपना अमर लोक,ठुकराया मैंने दोनों को रखकर अपना उन्नत ललाट, बिक, मगर गया मैं मोल बिना जब आया मानव सरस हृदय.हृदय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
बस एक बार पूछा जाता,यदि अमृत से पड़ता पाला;यदि पात्र हलाहल का बनता,बस एक बार जाता ढाला; चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ, लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होठों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला; मेरा घर है अरमानो से परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.मदिरालय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
मैं सखी सुराही का साथी,सहचर मधुबाला का ललाम;अपने मानस की मस्ती से उफनाया करता आठयाम; कल क्रूर काल के गालों में जाना होगा--इस होगा—इस कारण ही कुछ और बढा बढ़ा दी है मैंने अपने जीवन की धूमधाम; इन मेरी उल्टी चालों पर संसार खड़ा करता विस्मय.विस्मय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
मेरे पथ में आ-आ करके तू पूछ रहा है बार-बार,'क्यों तू दुनिया के लोगों में करता है मदिरा का प्रचार ?' मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे अवकाश कहाँ इतना मुझको,'आनंद करो'--यह —यह व्यंग्य भरीहै किसी दग्ध-उर की पुकार; कुछ आग बुझाने को पीते ये भी, कर मत इन पर संशय.संशय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
मैं देख चुका जा मस्जिद में झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज; यह पुण्य कृत्य,यह पाप कर्म, कह भी दूँ, तो क्या सबूत;कब कंचन मस्जिद पर बरसा,कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ? यह चिर अनादि से प्रश्न उठा मैं आज करूँगा क्या निर्णय ?मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
सुनकर आया हूँ मंदिर में रटते हरिजन थे राम-राम,पर अपनी इस मधुशाला में जपते मतवाले जाम-जाम; पंडित मदिरालय से रूठा, मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;मुझको मस्ती से महज काम.काम। भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों मन को बहलाने के अभिनय.अभिनय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
संसृति की नाटकशाला में है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,है पड़ा मुझे बनना प्याला,होना मदिरा का अभिमानी; संघर्ष यहाँ किसका किससे, यह तो सब खेल-तमाशा है,यह देख,यवनिका गिरती है,समझा कुछ अपनी नादानी ! छिप जाएँगे हम दोनों ही लेकर अपने-अपने आशय.आशय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
पल में मृत पीने वाले के कर से गिर भू पर आऊँगा,जिस मिट्टी से था मैं निर्मित उस मिट्टी में मिल जाऊँगा; अधिकार नहीं जिन बातों पर, उन बातों की चिंता करके अब तक जग ने क्या पाया है,मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा ? मुझको अपना ही जन्म-निधन 'है सृष्टि प्रथम,है अंतिम लय.लय।मिट्टी का तन,मस्ती का मन,क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !</poem>