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कुछ एक हसीं यादें हैं जो इस दिल को थामे रहती हैं।
कहना न जो आए दुनिया को ये मुझ से वो हर दम कहती हैं।
कितनी ही लाशें बिछती हैं यूँ तो हर दिन ही ख़्वाबों की,
फिर भी वो दुआएँ रख लब पर इल्ज़ाम बरहना सहती हैं।
 
कोई तो मिरे जैसा भी है, क़ाबू में जो अपना दिल रखता,
हर सुब्ह उमंगे लुटती हैं, हर शाम ही आँखें बहती हैं।
 
आँखों ने जो सपने देखे थे, वो चकना चूर हुए कैसे?
क्या जाने मुसाफ़िर हस्ती का दीवारें यहाँ क्यों ढहती हैं।
 
क्या सूरज ‘नूर’ क़मर को भी लगता है गहन जब वक़्त पड़े,
चमकें जो ज़माने में चीज़ें इक रोज़ यक़ीनन गहती हैं।
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