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<poem>
मुस्कुराएँ भला हम किस बात पर
अधरों की सारी हँसी छीन ली ।
बाँटेंगे सोचा सुख हर द्वार पर
कुछ ने तो वही पोटली छीन ली।
पाप गैर के लाकर भर ही दिए
निर्मल थी बही वह नदी छीन ली।
बनजारे थे हम टिकते भी कहाँ
जो घर को मिली, रोशनी छीन ली।
बाट चौराहे सब बन्द कर दिए
तेरे द्वार जाती गली छीन ली।

</poem>