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मजूर / राजेन्द्र देथा

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<poem>
साकल पछै एक मजूर
देख रियो है रचनांवां,गद्य अर आलेख
अर पढ'र व्यथित हो रियो है।
घणकरा कवि लिख्यो है उणरै
मोडे माथे राख्योडी ईंटा रो भार
लिख्यो भी इयां,जीयां पुरो भार आं रै माथे है।
पण काईं आ री कविता अर
घणैमान शुभकामनावां सूं
एक मई रो आटौ आ जावैला!
"नहीं, कदै ई नहीं"
म्हारो काम ईंट ढोअण रो है
इयां ही आ'रो काम भी
फगत रचण रौ ईज है।
ए जद रच'र म्हारी व्यथा
अर निकलै चौराऐ माथे
अर म्हारा भूखा रूंख फिरे
रूक्योडी बत्ती' र मांय
आं री धोली गाड़ी रे चारूंमेर
जद ए बंद कर लैवै काला कांचा नै।

म्हे कदै ई नी जाणू
सर्वहारा,समाजवाद,पूंजीवादी
जैड़ा बैकामिया शबद
म्हे जाणू हूँ मातर सड़क किनारे
बण्योड़ी कोठी रो अतोपतो
जठै म्हारौ ठेकेदार रेवे।

म्हे अर रामू दोन्यूं बालपन में
आच्छा दोस्त हा,आं दिनां
औ कोई सरकार रो जमाई व्हे गयो
ई बात पछै म्हारे सूं रूठ्गयौ लागै
काल ईज उणरौ फोन है
मुजब बताण खात'र क-
"कालू काल मजूरां रो दिन है"
काल काल आराम कर लीजै"

"म्हे कमठै माथै सिमैंट आला कट्टां रो
चौथो गैड़ो करण आलो हूँ!"

म्हनै माफ़ी!
</poem>
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