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Kavita Kosh से
जीवन की संचित अभिलाषा
साथ जोद़ता जोड़ता कितने मन पर
एकाकीपन बढ़ता जाता
कब तक यह अनहोनि अनहोनी घटती ही जाएगी
कब हाथों को हाथ मिलेगा
कब नयनों की भाषा
नयन समझ पाएँगेपाएंगे
कब सच्चाई का पथ
क्यों पाने की अभिलाषा में
मन हरदम ही कुछ खोता है !
ऐसा क्यों होता है ?
ऐसा क्यों होता है ?