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आँचल तो वही जो रंगों से,भर दे दामन अँगनाई का।
लेकिन ये काम ख़ुदा का है जो मालिक ख़ुल्दो-ख़ुदाई का।
पत्थर तो एक चला लेकिन खिड़की का शीशा टूट गया,
ये मंज़र मैंने भी देखा जब ग़ुस्सा टूटा दंगाई का।
दिन-रात जो अपना घर भरकर लोगों को नसीहत देते हैं,
शायद मालूम नहीं अब तक उनको अंजाम बुराई का।
औसान न खोना तुम अपने हर्गिज़ भी महाज़े-हस्ती पर,
दुश्मन को मार गिराना जब मौक़ा मिल जाए चढ़ाई का।
मत जीना ख़ुद से ग़ाफ़िल हो धरती पे कभी भी तुम यारो,
पछताओगे वरना ‘नूर’ बहुत जब होगा वक़्त जुदाई का।
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