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Kavita Kosh से
::आदि लास, अविगत, अनादि स्वन,
::अमर नृत्य - गति, ताल चिरन्तन,
::::नाचो, हे नाचो, नटवर !
::सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन,
::उठे सृष्टि-हृंत् हृद में नव-स्पन्दन,
::विस्फारित लख काल-नेत्र फिर
::काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन ।
::घहरें प्रलय-पयोद गगन में,
::अन्ध-धूम धूम्र हो व्याप्त भुवन में,
::बरसे आग, बहे झंझानिल,
::मचे त्राहि जग के आँगन में,
::प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल,
::विदलित अमित निरीह-निबल-दल,
::मिटे राष्ट्र, उजडे उजड़े दरिद्र-जन
::आह ! सभ्यता आज कर रही
::असहायों का शोणित-शोषण।