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साधना / महेन्द्र भटनागर

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|संग्रह= अन्तराल / महेन्द्र भटनागर
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आशा में घोर निराशा को आज बदलना सीख रहा हूँ !

दुख की निर्मम बदली में यह दीप जलेगा कब तक मेरा,
मौन बनी सूनी कुटिया में प्यार पलेगा कब तक मेरा ?
आते हैं उन्मत्त बवंडर, पागल बन तूफ़ान भयंकर,
रोक सका क्या ? बुझने का क्षण और टलेगा कब तक मेरा ?
तीव्र झकोरों में झंझा के पल-पल जलना सीख रहा हूँ !

कितने ही अरमान दबाए, नव-जीवन की प्यास लिये हूँ,
भूला-भटका, अनजाना-सा आँसू का इतिहास लिये हूँ,
अपने छोटे-से जीवन में अविचल साहस-धैर्य बँधाए,
मिटी हुई अभिलाषाओं में मिलने का विश्वास लिये हूँ,
शून्य डगर पर मैं जीवन की गिर-गिर चलना सीख रहा हूँ!

मत बोलो मैं आज अकेला स्वर्ग बसाने को जाता हूँ,
मौन-साधना से अंतर को आज जगाने को जाता हूँ,
रज-कण से ले उन्नत भूधर तक सुन कंपति हो जाएंगे;
अपने आहत मन को फिर से आज उठाने को जाता हूँ,
निर्मम जग के भारी संघर्षों में पलना सीख रहा हूँ !

मत समझो मुझमें ज्वालाओं का भीषण विस्फोट नहीं है,
तूफ़ानों के बीच भँवर में आँचल तक की ओट नहीं है,
मत समझो, अगणित उच्छ्वासों का भी मूल्य नहीं कुछ मेरा
कौन जानता ? इस अंतर में असफलता की चोट नहीं है,
दुर्गम-बीहड़ जीवन-पथ के कंटक दलना सीख रहा हूँ !
1944
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