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विनाश / महेन्द्र भटनागर

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मैं मिटता जाता हूँ प्रतिपल !

तारे छिप जाते अम्बर में,
लहरें मिट जातीं सागर में,
वीणा के स्वर लय हो जाते
बहते मारुत के सर-सर में
काल-धार में एक दिवस मैं भी लय हो जाऊंगा चंचल !

कुसुमों का दो-दिन का यौवन,
दो-दिन का भ्रमरों का गायन,
जब दो-दिन में ही सीमित है
उनकी इच्छाओं की धड़कन,
दो-दिन में मेरी भी काया नश्वर हो जाएगी दुर्बल !

दिन छिपता उड़ती धूलि गगन,
निशि ढलती जाती है प्रतिक्षण,
युग बीत रहे अपनी गति से,
होता रहता जग-परिवर्तन,
मैं भी जीवन-पथ पर चलता जाता लेकर अंतर-हलचल
1946
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