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{{KKRachna
|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
}}
<poem>
:मिले हो आज जीवन की डगर पर
:किंतु आगे साथ मेरा सह सकोगे क्या ?
:अभी जीवन-निशा पहला प्रहर, तारे
:गगन में आ, अनेकों आ, रहे हैं छा,
:सघनतम आवरण छाया, नहीं दिखती
:सफलता की प्रभाती की कहीं रेखा,
:नहीं दिखता कहीं भी लक्ष्य का लघु
:चिद्द, आँखों को यहाँ पर फाड़ कर देखा !
:निराशा से बचा लोगे, सतत-गति,
:लक्ष्य-उन्मुख प्रेरणा-स्वर कह सकोगे क्या ?
:नहीं संदेह, प्राणों को यहाँ पाथेय,
:साधन-हीन हो चलना असंभव है,
:नहीं संदेह, दीपक को बिना लघु
:स्नेह-बाती के कहीं जलना असंभव है,
:नहीं संदेह, आँधी में भयावह
:नाश का सामान हो पलना असंभव है !
:तुम्हारे प्यार के बल पर चला हूँ,
:पर, भला आगे सदय तुम रह सकोगे क्या ?
:नहीं तो चल रहा हूँ मौन, जीवन-पंथ
:पर आगे अकेला ही, अकेला ही,
:नहीं तो चढ़ रहा हूँ पर्वतों को
:आज मैं भागे अकेला ही, अकेला ही,
:चला हूँ चीरता सागर-लहरियाँ
:बाहुओं के बल, घिरी जब नाश बेला ही !
:अभय वरदान देकर, मूक मन से
:कह सकोगे यों, ‘नहीं तुम बह सकोगे !’ क्या ?
:1949
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|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
}}
<poem>
:मिले हो आज जीवन की डगर पर
:किंतु आगे साथ मेरा सह सकोगे क्या ?
:अभी जीवन-निशा पहला प्रहर, तारे
:गगन में आ, अनेकों आ, रहे हैं छा,
:सघनतम आवरण छाया, नहीं दिखती
:सफलता की प्रभाती की कहीं रेखा,
:नहीं दिखता कहीं भी लक्ष्य का लघु
:चिद्द, आँखों को यहाँ पर फाड़ कर देखा !
:निराशा से बचा लोगे, सतत-गति,
:लक्ष्य-उन्मुख प्रेरणा-स्वर कह सकोगे क्या ?
:नहीं संदेह, प्राणों को यहाँ पाथेय,
:साधन-हीन हो चलना असंभव है,
:नहीं संदेह, दीपक को बिना लघु
:स्नेह-बाती के कहीं जलना असंभव है,
:नहीं संदेह, आँधी में भयावह
:नाश का सामान हो पलना असंभव है !
:तुम्हारे प्यार के बल पर चला हूँ,
:पर, भला आगे सदय तुम रह सकोगे क्या ?
:नहीं तो चल रहा हूँ मौन, जीवन-पंथ
:पर आगे अकेला ही, अकेला ही,
:नहीं तो चढ़ रहा हूँ पर्वतों को
:आज मैं भागे अकेला ही, अकेला ही,
:चला हूँ चीरता सागर-लहरियाँ
:बाहुओं के बल, घिरी जब नाश बेला ही !
:अभय वरदान देकर, मूक मन से
:कह सकोगे यों, ‘नहीं तुम बह सकोगे !’ क्या ?
:1949
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