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<poem>
क्या मुनासिब है दुश्मनी ही रहे
दोस्ती की सदा कमी ही रहे

जिसको सुनकर के प्यार घटता हो
वो ख़बर काश अनसुनी ही रहे

दो घड़ी की बहार जी ले ज़रा
क्यूँ तेरी आँख में नमी ही रहे

ग़म को स्वीकार कर ख़ुशी से सदा
क्या ज़रूरी सदा ख़ुशी ही रहे

ग़म हो किस बात का मुहब्बत में
चाहे हिस्से में बेकली ही रहे

होश तुझको रहे , रहे बेशक़
मुझको ताउम्र बेख़ुदी ही रहे

तिश्नगी का मेरी मुदावा तू
तू मुहब्बत की बस नदी ही रहे

हम मनाएँ कभी मनाओ तुम
एक दूजे से यूँ ठनी ही रहे

मुझको 'आनन्द' मुफ़लिसी प्यारी
मुफ़लिसी में अगर ख़ुशी ही रहे
</poem>
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