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जलते चराग़ों का / आनन्द किशोर

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समझता है न कोई ग़म यहाँ जलते चरागों का
निकल जाए भले ही दम यहाँ जलते चरागों का

ये पूछो उनसे जो रहते सदा से हैं अँधेरों में
हुआ रुत्बा ज़रा क्या कम यहाँ जलते चरागों का

फ़क़त बस रात में औक़ात है इनकी, कभी दिन में
नहीं लहराएगा परचम यहाँ जलते चरागों का

जलेगा कौन ख़ातिर दूसरों के इस ज़माने में
कोई होता नहीं बाहम यहाँ जलते चरागों का

इकट्ठा करके रक्खे हैं उजाले घर में अपने पर
हुनर कब जानते हैं हम यहाँ जलते चरागों का

जियो औरों की ख़ातिर, सीख ये 'आनन्द' मिलती है
तभी तो ज़िक्र है हरदम यहाँ जलते चरागों का
</poem>
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