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<poem>
किरदार हुए बदतर कैसा ये ज़माना है
कलियों को चमन की अब ज़ालिम से बचाना है

कहते हैं बहारों से गुलशन को सजाएंगे
कलियाँ न हिफ़ाज़त से क्या ख़ाक सजाना है

लगता है ज़माने में ज़रदार का मक़सद ये
कमज़ोर को मुफ़लिस को बेबात दबाना है

ये आग शिकम की है मासूम झुलसते हैं
हाथों में कटोरा है इतना सा फ़साना है

दहक़ान के खेतों में उगते हैं फ़क़त फाके
रोटी है न पानी है छप्पर न ठिकाना है

क्या हाल है क्या गुज़री पूछा तो किसाँ बोले
वो ख़ाक ज़माना था ये ख़ाक ज़माना है

भूला है हरिक इन्सां तहज़ीब अदब इज़्ज़त
कहते हैं मगर फिर क्यूँ ये मुल्क बचाना है

इतना भी अगर समझा तो प्यार न छोडेगा
क्या ले के हुआ पैदा क्या साथ में जाना है

'आनन्द' अगर चाहे बाँटे भी तो क्या बाँटे
जब रंजो अलम जैसा दामन में ख़जाना है
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