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जाने कब तक प्रेम-पिपाशा जो लौटना तुम्हें है तो लौट प्राण! जाओ, तुझको याद रहेगी करती । पर यह कहो कि मन को, क्या दूर कर सकोगी।
कहीं सजल नयनों से मेरे दृश्य न ये धुँधले हो जाएँ, आती होगी प्रिया कहीं ये ख्वाब न सब मेरे खो जाएँ। सोच इसे आँसू की बूँदेंनयनों में हैं नहीं उतरती। जाने कब तक प्रेम-पिपाशा तुझको याद रहेगी करती। जिससे कभी तुम्हारा संसार अर्थ पाया।जिससे कभी तुम्हारा शृंगार अर्थ पाया।चिर-पीड़ा से व्याकुल यह मन सूखी आहों के गीले घनतुम आज भूल बैठीं, जीवन के एकाकीपन में कभी न हो मेरा मन उन्मन। इस कारण प्रेमिल सुधियाँ नित अंतर्मन की पीड़ा हरती। जाने कब तक प्रेमउसको दिए वचन सब-पिपाशा तुझको याद रहेगी करती । क्या झूठ कहा व्रत औ त्योहार अर्थ पाया?
अमृत-घट की चाह में मैंने कालकूट का विष है पायातुम आज दूर कर दो हर अर्थ को प्रिये पर, प्रेम-दिवस की संध्या तुम मन से हर वचन को क्या दूर कर सकोगी। आँखें लदी घटाएँ गुमसुम सदा रहेंगीं।मन में भी बसी व्यथाएँ गुमसुम सदा रहेंगीं।प्रीतकोई नहीं रहेगा जो दर्द बाँट ले कुछ-पंथ पर दीप जलाया। खुद सारी मिली दुआएँ गुमसुम सदा रहेंगीं। तुम कोर पोंछ दृग के आँसू भले छुपा लो-तुम विरह की अगन को कहताक्या दूर कर सकोगी। प्रिय सुखद क्षण बिताकर, है प्रेमपग पखारा।तुम लहर-कथा में सी रही हो, मैं रहा हूँ किनारा।विरहकेवल यही बता दो, फिर कुछ नहीं कहूँगा-अवधि नव रँग है भरती। जाने कब तक प्रेममुझसे हृदय मिलाकर, क्या रह गया तुम्हारा। जिसने बदन तुम्हारा चंदन बना दिया है-पिपाशा तुझको याद रहेगी करती।तुम आज उस छुवन को, क्या दूर कर सकोगी।
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