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शोकगीत: दो / अरविन्द भारती

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<poem>
हवेली की
दीवारें
दहाड़ी

मुर्गी
कैद हुई

ख़ूनी पंजा
बाहर निकला

चूल्हे टूटे
झोपड़ियाँ
स्वाह हुई
शोकगीत के लिए
कोई
शेष ना रहा।
</poem>
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