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विरुद्ध / पूनम मनु

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<poem>
मैं प्यार से निखारूंगी बसंत एक दिन
तुमसे फूट पड़ेंगी कलियाँ, कोंपलें, पत्ते और बासंती हवा
कलियों की लालिमा जब भी छूएगी तुम्हारे मुख को
तुम आँचल में भर लेना उन्हें...

मैं चाँद से मांग लाऊँगी सेहरा
तुम शान से चूमना उठा मस्तक पर सजा लेना
धीरे-धीरे सहेजना उसकी लड़ियाँ
और लड़ियों को पिरो देना मन के द्वार की झालर में

मैं आस को मनाऊँगी तुम्हारे लिए कि
तुम्हारे स्वप्न न हों पूरे जब तक
लिपटी रहे तुम्हारे नैनों से
पोंछकर उनकी नमी
कि नमी में भले उपजते हो अंकुर
पर जीवन के स्तंभों के लिए
सीलन प्राणघातक है।

मैं जब भी गाऊँगी फाग
सभी रंग बिखर जाएंगे
गुलाबी, हरा, नीला, पीला हो जाएगा गगन
तुम चुनना अपने मनपसंद रंग और
भर लेना मन की गागर में
घोल-घोल रंगना भाग्य की सफ़ेद धरती को
अपने मनचाहे रंगों में

मत डरना खेलना फाग
नाचना सावन में
चाँद की चुनर ओढ़ना
बीते को बीते में ही छोड़
'अब हमारी बहू नहीं, बेटा है' से बाहर निकलना

मैं जल्द ही मुट्ठी में लाऊँगी प्रीत
तुम उसे खोलना
उसमें भींगना
और एक इंसान की तरह जीना
अपने रंग अपने संग

तुम समझती हो ना
जड़ का चेतन होना
प्रकृति के विरुद्ध होना नहीं होता।
</poem>
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