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|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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उमीदे-मर्ग कब तक ‍ज़ि‍न्दगी ज़ि‍न्दगी का दर्दे-सर कब तक ये माना सब्र करते हैं महब्बत में मगर कब तक
दयारे दोस्त हद होती है यूँ भी दिल बहलने की
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक
यॅ तदबीरें भी तक़दीरे- महब्बबत महब्बत बन नहीं सकतीं
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक
इनायत<supref>1कृपा</supref> की करम की लुत्फ़ की
आख़ि‍र कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्‍़मे ज़िगर<supref>2जिगर के घाव का उपचार</supref> कब तक
किसी का हुस्नर रूसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में न लाये रंग आख़िरकार ता‍सीरे- नज़र कब तक
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1- कृपा, 2- जिगर के घाव का उपचार </poem>{{KKMeaning}}
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