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|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
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ज़रूरत आदमी को आदमी की
बसा-औक्रात<supref>1कभी-कभी</supref> दिल से कह गयी है
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की
है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल<supref>2बहार के दिन</supref> पर
चमन में मुस्कुहराहट कर कली की
रक़ीबे-ग़मज़दा<supref>3दुखी प्रतिद्वन्द्वी</supref> अब सब्र कर ले
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी
 1- कभी-कभी, 2- बहार के दिन, 3- दुखी प्रतिद्वन्द्वी  
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