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<poem>
परम पुनीता इस धरा पर देवसरिता बह रही है
छलछलाती तट पे जाती देववाणी कह रही है।

युगों- युगों से देव गंधर्व, यक्ष, मानव वास करते
सत्य की वाणी को पाने का सभी प्रयास करते।
आज भी गिरिराज की शीतल पवन ये कह रही है।
परम..................।

अतुलनीय श्रृंगार से है ब्रह्म ने इसको बनाया
कैलाशवासी शिव ने आकर स्वयं गंगा को बहाया
थी साक्षी कन्दराएं जो अब भी गंगे-गंगे कह रही हैं।
परम पुनीता................।

धो रही है पाप दुष्टों के स्वयं को मैली करके
दे रही है पुण्यदायी फल सभी को झोली भर के
फिर भी लेकिन आज दूषण की सज़ा यह सह रही है।
परम पुनीता....................।

</poem>
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