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{{KKRachna
|रचनाकार=विजय राही
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मैं कविताओं को पढ़ता नही
सुनता हूँ
इसलिए पंखा बंद कर देता हूँ
कि कोई भी शोर ना हो ।
मैं कोशिश करता हूँ
कविताओं की आवाज़ मुझ तक पुहंचे
मूल रूप से उसी भाव के साथ
जो वो कहना चाहती है ।
फिर भी कोई ना कोई शोर
होता रहता है इस दरम्यान
पत्नी चाय के लिए लगाती है आवाज
बच्चा आकर रोता है गोद के लिए
बरामदें में करते हैंं कबूतर गूटरगू ।
फिर मैं चाय पीकर
बच्चे को गोद में ले
धीमा पंखा चलाकर
कबूतरों की गूटरगू के साथ
सुनता हूँ कविताएँ ।
</poem>
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|रचनाकार=विजय राही
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मैं कविताओं को पढ़ता नही
सुनता हूँ
इसलिए पंखा बंद कर देता हूँ
कि कोई भी शोर ना हो ।
मैं कोशिश करता हूँ
कविताओं की आवाज़ मुझ तक पुहंचे
मूल रूप से उसी भाव के साथ
जो वो कहना चाहती है ।
फिर भी कोई ना कोई शोर
होता रहता है इस दरम्यान
पत्नी चाय के लिए लगाती है आवाज
बच्चा आकर रोता है गोद के लिए
बरामदें में करते हैंं कबूतर गूटरगू ।
फिर मैं चाय पीकर
बच्चे को गोद में ले
धीमा पंखा चलाकर
कबूतरों की गूटरगू के साथ
सुनता हूँ कविताएँ ।
</poem>